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खंड 1 — धरती की बदलती सांसें
"जलवायु परिवर्तन केवल विज्ञान का विषय नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। जानिए धरती की बदलती सांसों की कहानी और सीखें, कैसे हम मिलकर इसका संतुलन वापस ला सकते हैं।"
पर्यावरण और धरती माँ
रोहित थपलियाल
8/16/2025



जब धरती बोलती है, पर हम नहीं सुनते
हम इंसान अक्सर अपने आपको इस ब्रह्मांड का केंद्र समझने की भूल कर बैठते हैं। हम शहरों के शोर, उद्योगों की धुएँ और व्यापार के आंकड़ों में इतने उलझ जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि हमारी सांस, हमारा अन्न, हमारा जल — सब कुछ प्रकृति के ऋण पर टिका है।
लेकिन प्रकृति, जो अनंत काल से धैर्यपूर्वक हमें पाल रही है, अब धीरे-धीरे अपना मौन तोड़ रही है। यह मौन चेतावनी है — जलवायु परिवर्तन।
आज मौसम का चक्र बदल रहा है, वर्षा अनिश्चित हो गई है, नदियाँ कभी उफान पर हैं तो कभी सूख रही हैं, और तापमान इतिहास के उच्चतम स्तर को छू रहा है।
यह सिर्फ पर्यावरणीय संकट नहीं है, यह हमारे अस्तित्व पर लिखा एक चेतावनी पत्र है।
एक सांस जो हम सबकी है
क्या आपने कभी सुबह-सुबह खेतों में उठती ठंडी हवा में गहरी सांस ली है?
क्या आपने कभी पहाड़ों की बर्फीली चोटी से आती शीतल बयार को महसूस किया है?
क्या आपने कभी बारिश की पहली बूंद के साथ मिट्टी की खुशबू को अपने भीतर उतारा है?
अगर हाँ… तो आपने धरती की सांसें महसूस की हैं।
हाँ, धरती भी सांस लेती है — हमारे पेड़ों की पत्तियों में, हमारे समुद्र की लहरों में, हमारे पहाड़ों की बर्फ में, और हमारी नदियों की धाराओं में।
लेकिन आज… ये सांस थोड़ी थक गई है, भारी हो गई है।
धरती की यह थकान, यह भारीपन ही जलवायु परिवर्तन की सबसे पहली निशानी है।
ये कोई दूर का, भविष्य का खतरा नहीं — ये आज का सच है, और हम सबके जीवन में धीरे-धीरे उतर चुका है।
जलवायु परिवर्तन का असली अर्थ — केवल तापमान बढ़ना नहीं
जब हम 'जलवायु परिवर्तन' सुनते हैं, तो दिमाग में सबसे पहले 'गर्मी बढ़ना' आता है। लेकिन यह आधी सच्चाई है। असल में यह एक पूरी प्रणाली का असंतुलन है — हवा की गति, महासागरों का तापमान, ध्रुवीय बर्फ का पिघलना, और मौसम के पैटर्न का टूटना।
तापमान — पृथ्वी का औसत तापमान पिछले 150 वर्षों में लगभग 1.2°C बढ़ चुका है। सुनने में यह छोटा लगता है, लेकिन इसका असर महासागरीय धाराओं, मानसून और पारिस्थितिक तंत्र पर विशाल है।
मौसमी चक्र का टूटना — पहले जहां किसान को मालूम होता था कि कब बारिश आएगी, अब मानसून हफ्तों देर से आता है या अचानक बाढ़ ला देता है।
प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि — तूफानों, बाढ़, सूखे और जंगल की आग की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रही हैं।
यह मानो पृथ्वी का संतुलन बिगड़ गया हो, और हम एक डगमगाती नाव में खड़े हों।
जलवायु परिवर्तन — सिर्फ विज्ञान नहीं, जीवन का दर्शन
जब हम “जलवायु परिवर्तन” कहते हैं, तो ज़्यादातर लोग इसे सिर्फ तापमान, बर्फ के पिघलने या मौसम के बदलने तक सीमित समझते हैं।
लेकिन भारतीय दृष्टिकोण में यह जीवन के संतुलन का बिगड़ना है।
उपनिषद हमें सिखाते हैं —
"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" —
जैसा हमारे शरीर का संतुलन बिगड़ता है तो बीमारी आती है, वैसे ही जब धरती का संतुलन बिगड़ता है, तो यह “जलवायु परिवर्तन” के रूप में प्रकट होता है।
हमारे ऋषि-मुनि “ऋतुचक्र” को ब्रह्मांडीय लय मानते थे।
वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर — ये सिर्फ मौसम नहीं थे, बल्कि जीवन की धड़कन थे।
आज यह लय टूट रही है, और यह टूटन सिर्फ बादलों में नहीं,
हमारे भीतर भी गूंज रही है।
दर्शनिक दृष्टिकोण — क्यों यह संकट आत्मा का भी है
अगर हम इसे सिर्फ विज्ञान तक सीमित रखें, तो यह ठंडा, भावनाहीन विश्लेषण बन जाएगा। लेकिन जलवायु परिवर्तन को दर्शनिक दृष्टि से देखें, तो यह हमें अपनी आत्मा से सवाल पूछने पर मजबूर करता है —
क्या हम सृष्टि के हिस्सेदार हैं, या उसके मालिक बनने का दावा कर बैठे हैं?
भगवद्गीता में कहा गया है:
"प्रकृति का संतुलन ही धर्म है, और जो संतुलन बिगाड़ता है, वह अधर्म करता है।"
यह संकट हमें याद दिला रहा है कि पृथ्वी किसी एक पीढ़ी की संपत्ति नहीं है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों से मिली धरोहर और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक पवित्र ऋण है।
धरती और मनुष्य का अनुबंध
सोचिए, अगर किसी किसान और उसकी जमीन के बीच का रिश्ता टूट जाए, तो क्या होगा?
जमीन बंजर हो जाएगी और किसान भूखा मर जाएगा।
हम और धरती का रिश्ता भी ऐसा ही है —
हम उसके बच्चे हैं, वह हमारी जननी है।
हमारा अनुबंध बहुत पुराना है:
वह हमें अन्न देती है, हम उसकी मिट्टी को नहीं ज़हर बनाते।
वह हमें पानी देती है, हम उसके स्रोतों को नहीं सुखाते।
वह हमें हवा देती है, हम उसमें जहर नहीं घोलते।
लेकिन पिछले सौ सालों में,
हमने इस अनुबंध को तोड़ना शुरू कर दिया।
हमने अपने लालच, अपनी सुविधा और अपने उपभोग के लिए,
धरती की सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया।
जलवायु परिवर्तन के पीछे मनुष्य का योगदान — आत्मचिंतन आवश्यक
सच यह है कि प्रकृति का यह असंतुलन संयोग नहीं, बल्कि परिणाम है ,हमारी गतिविधियों का।
औद्योगिक क्रांति के बाद: कोयला, तेल और गैस के अत्यधिक उपयोग से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) का स्तर 280 ppm से बढ़कर 420 ppm से ऊपर पहुँच चुका है।
वृक्षों की कटाई — हमने जंगलों को कागज़, फर्नीचर और खेती के लिए काटा, लेकिन यह भूल गए कि वे हमारी सांस के लिए ऑक्सीजन का कारखाना हैं।
अत्यधिक उपभोग — हम जितना उपभोग करते हैं, उससे कई गुना उत्पादन करवाते हैं, और वह उत्पादन धरती की कीमत पर होता है।
यहां दर्शन का प्रश्न है ,
“क्या हम विकास कर रहे हैं, या सिर्फ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं?”
जब धरती थकने लगती है
प्रकृति का नियम है — जब किसी को चोट लगती है, तो वह संकेत देता है।
धरती भी यही कर रही है।
कभी वह तेज गर्मी भेजती है, ताकि हम समझें।
कभी वह बेमौसम बारिश करती है, ताकि हम रुकें।
कभी वह तूफान और बाढ़ से हमें झकझोरती है, ताकि हम चेतें।
लेकिन, क्या हमने उसके संकेतों को सुना?
या हमने उन्हें “प्राकृतिक आपदा” कहकर
बीमा और राहत पैकेज में बदल दिया?
भारतीय दृष्टिकोण से जलवायु परिवर्तन की चेतावनी
भारतीय संस्कृति में पंचमहाभूत — पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश —
को ईश्वर का रूप माना गया है।
हम मानते हैं कि अगर इनमें से किसी का संतुलन बिगड़े, तो जीवन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है।
पृथ्वी — बंजर हो रही है, खेतों की उपज घट रही है।
जल — नदियां सूख रही हैं, ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
अग्नि — जंगलों में आग, तापमान में वृद्धि।
वायु — सांस लेने लायक हवा घट रही है।
आकाश — मौसम का चक्र टूट रहा है।
ये सिर्फ पांच तत्व नहीं, ये हमारे अस्तित्व के पांच स्तंभ हैं — और आज पांचों डगमगा रहे हैं।
पाठक से संवाद — एक प्रश्न आपसे
क्या आपने अपने जीवन में मौसम का बदलाव महसूस किया है?
क्या आपने देखा है कि
ग्रीष्म पहले से ज्यादा लंबा और कठोर हो गया है?
बारिश का पैटर्न बदल गया है?
सर्दी देर से आती है और जल्दी चली जाती है?
अगर आपका उत्तर “हाँ” है…
तो आप पहले से ही जलवायु परिवर्तन के गवाह हैं।
यह कोई आंकड़ा नहीं, कोई रिपोर्ट नहीं —
यह आपका अपना अनुभव है।
अगर आज से आप अपने जीवन में तीन पर्यावरण-सुरक्षा के नियम लागू कर दें, तो वे क्या होंगे?
क्या आप एक साल में 12 पेड़ लगाने का संकल्प ले सकते हैं?
क्या आप अपने परिवार को ‘प्लास्टिक-फ्री’ बनाने का प्रयास करेंगे?
यह लड़ाई किसकी है?
बहुत लोग सोचते हैं — “ये सरकार और वैज्ञानिकों का काम है, हम क्या कर सकते हैं?”
लेकिन सच्चाई यह है कि
जलवायु परिवर्तन हर इंसान की जिम्मेदारी है।
क्योंकि यह समस्या घर-घर में बन रही है:
बिजली की बेवजह खपत
प्लास्टिक का अत्यधिक प्रयोग
पानी की बर्बादी
पेड़ों की अनदेखी
अगर हम इसे रोज़मर्रा में पैदा कर सकते हैं,
तो हम इसे रोज़मर्रा में ठीक भी कर सकते हैं।
भावनात्मक संवाद — आने वाली पीढ़ी की आँखों से देखें
कल्पना कीजिए, आपका पोता/पोती आपसे पूछे —
"दादाजी, जब आपको पता था कि जलवायु बदल रही है और धरती खतरे में है, तब आपने क्या किया?"
क्या हम गर्व से जवाब दे पाएंगे?
या हमें चुप रहना पड़ेगा क्योंकि हम उस समय बस “व्यस्त” थे?
यह संकट सिर्फ हमारे समय का नहीं, बल्कि आने वाले सैकड़ों सालों की दिशा तय करेगा।
प्रेरणादायक दृष्टांत — चिपको आंदोलन
1970 के दशक में, उत्तराखंड के गांवों की महिलाओं ने पेड़ों को काटने से बचाने के लिए
पेड़ों से लिपटकर आंदोलन किया।
उस समय न उनके पास कोई बड़ी तकनीक थी, न मीडिया,
लेकिन उनके दृढ़ संकल्प ने जंगल बचा लिए।
यह हमें सिखाता है कि
बदलाव तकनीक से नहीं, संकल्प से आता है।
छोटी पहल भी बड़े परिणाम ला सकती है।
समाधान भी हमारे हाथ में है
खुशखबरी यह है कि अभी भी समय है।
हम अपने घरों, शहरों और देशों में बदलाव लाकर इस संकट को रोक सकते हैं।
सतत ऊर्जा — सौर, पवन, और जल ऊर्जा का उपयोग।
वृक्षारोपण और संरक्षण — एक पेड़ लगाना केवल छाया देना नहीं, बल्कि जलवायु को स्थिर करना है।
उपभोग में संयम — जो चाहिए, उतना ही लेना और बर्बादी कम करना।
आगे की राह
जलवायु परिवर्तन की चर्चा केवल डर पैदा करने के लिए नहीं होनी चाहिए,
बल्कि चेतना जगाने के लिए होनी चाहिए।
हमें डर से नहीं,
बल्कि प्रेम से धरती को बचाना है।
याद रखिए
धरती की सांसें हमारी सांसों में बसी हैं।
अगर उसकी सांस थमी… तो हमारी भी थम जाएगी।
अंतिम प्रेरक संदेश:
"धरती को बचाना कोई विकल्प नहीं — यह मानव होने का प्रमाण है।
आओ, एक ऐसा भविष्य बनाएं, जहां हमारी आने वाली पीढ़ियां हमें धन्यवाद दें,
न कि सवाल करें कि हमने उनके लिए क्या छोड़ा।"


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